बिहारराजनीति

देश सबसे कठिन दौर में, सामाजिक बदलाव की विभिन्न धाराओं को एकजुट होना होगा:दीपंकर भट्टाचार्य

•अमृतकाल के नाम पर परोसा जा रहा है विष: प्रो. रामवचन राय
•जगजीवन राम स्मृति व्याख्यानमाला के तहत ‘बिहार में सामाजिक बदलाव की चुनौतियां’ विषय पर आयोजित हुआ सेमिनार
पटना। जगजीवन राम स्मृति व्याख्यानमाला के अंतर्गत आज जगजीवन राम संसदीय अध्ययन एवं राजनीतिक शोध संस्थान, पटना में ‘बिहार में सामाजिक बदलाव की चुनौतियां’ विषय पर एक सेमिनार का आयोजन हुआ, जिसे मुख्य वक्ता के बतौर भाकपा-माले के महासचिव दीपंकर भट्टाचार्य ने संबोधित किया. कार्यक्रम की अध्यक्षता बिहार विधान परिषद् के सदस्य और पटना विश्वविद्यालय के रिटायर्ड शिक्षक प्रो. (डॉ.) रामवचन राय ने की. स्वागत वक्तव्य संस्थान के निदेशक डाॅ. नरेन्द्र पाठक की ओर से दिया गया।
माले महासचिव ने उक्त विषय पर देश और बिहार के अंदर विगत 200-250 वर्षों के अंदर चले सामाजिक बदलाव के संघर्षों की चर्चा की। उन्होंने कहा कि आज देश जिस कठिन परिस्थिति से गुजर रहा है, उसमें सामाजिक बदलाव की सभी धाराओं को मिलकर काम करना होगा। दौर सबसे कठिन है लेकिन इसी दौर में नए लोग नए तेवर के साथ खड़े होते हैं। हाशिए पर खड़े लोगों के लिए सामाजिक बदलाव जरूरी शर्त है।
उन्होंने सामाजिक बदलाव की पृष्ठभूमि की चर्चा करते हुए कहा कि यह लड़ाई कभी तेज, कभी धीमी लेकिन लगातार चलने वाली एक प्रक्रिया है। आजादी की लड़ाई को केवल राजनीतिक आजादी के लिहाज से नहीं देखना होगा बल्कि उसके भीतर सामाजिक बदलाव का संघर्ष भी उतनी ही तीव्रता के साथ मौजूद था। उन्होंने फुले के संघर्षों को याद किया। कहा कि सामाजिक बदलाव का मतलब यह नहीं है कि जमीन या आर्थिक सत्ता मिल जाए, बल्कि जाति व्यवस्था के कारण दलितों-महिलाओं की शिक्षा व अन्य अधिकारों से वंचना के खिलाफ संघर्ष भी सामाजिक बदलाव के एजेंडे में शामिल हैं।
उन्होंने देश व बिहार के इतिहास में 1936 को टर्निंग प्वायंट बताया। कहा कि उस समय एक तरफ जुझारू किसान आंदोलनों का आवेग खड़ा हुआ और इसी समय बाबा साहेब अंबेडकर ‘जाति के विनाश’ के विचार के साथ सामने आए। 1947 में आजादी आई। आजादी के साथ राजनीतिक बराबरी तो आ गई लेकिन सामाजिक- आर्थिक गैरबराबरी जारी रही। 1970 के दशक में हमारे नेतृत्व में उठ खड़े हुए व्यापक आंदोलन में जमीन, मजदूरी के साथ-साथ सामाजिक सम्मान का प्रश्न भी एक प्रमुख प्रश्न था।
उन्होंने कहा कि आरक्षण के कारण विश्वविद्यालयों व कुछेक अन्य जगहों पर दलित-पिछड़े समुदाय को प्रतिनिधित्व मिलने लगा है, लेकिन न्यायालय व प्राइवेट सेक्टर में अब भी यह नहीं हो रहा है। आरक्षण ने माहौल बदला है, लेकिन जब तक समाज का ढांचा नहीं बदलता, न्याय की गुंजाइश कम रहेगी।
उन्होंने यह भी कहा कि अब तो आरक्षण की पूरी अवधारणा पर ही कुठाराघात हो रहा है। आज की तारीख में कोई भी पार्टी सामाजिक न्याय की अवधारणा को कोई गलत नहीं कहेगी, लेकिन हम देख रहे हैं कि चोर दरवाजे से संविधान विरोधी 10 प्रतिशत सवर्ण आरक्षण लाया गया।
उन्होंने आगे कहा कि आज देश फासीवादी दौर से गुजर रहा है। अंग्रेजी राज की तर्ज पर शासन चलाने की कोशिश हो रही है और हमारे सारे अधिकार छीने जा रहे हैं। ये सारी चीजें समाज को पीछे ले जाने वाली हैं। हमें न केवल मिले अधिकारों, लोकतंत्र और सामाजिक न्याय की अवधारणा के पक्ष में मजबूती से खड़ा होना है, बल्कि इसे गुणात्मक रूप से बेहतर बनाने के बारे में भी काम करना होगा।
अपने अध्यक्षीय वक्तव्य में प्रो. रामवचन राय ने कहा कि आज देश में जो सरकार है, वह अमृतकाल के नाम पर नफरत का कारोबार कर रही है। विष वमन कर रही है। यह बहुत दुखद है। पूरे देश में कुहासा सा माहौल है। उन्होंने प्रेमचंद को उद्धत करते हुए कहा कि सांप्रदायिकता हमेशा संस्कृति के वाहक के रूप में ही आती है। इससे हम सबको मिलजुलकर निपटना होगा। उन्होंने भाकपा-माले महासचिव दीपंकर भट्टाचार्य के प्रति आभार प्रकट करते हुए कहा कि उन्हें उम्मीद है कि वे और उनकी पार्टी इस सामाजिक बदलाव के वाहक बनेंगे।

इसके पूर्व संस्थान के निदेशक डॉ. नरेन्द्र पाठक ने दीपंकर भट्टाचार्य व प्रो. रामवचन राय को अपनी पुस्तकें भेंट की और शाल के साथ सम्मानित किया। कार्यक्रम के दौरान डॉ. विद्यार्थी विकास, पुष्पराज, गालिब आदि ने सवाल-जवाब भी किए।
कार्यक्रम में उक्त वक्ताओं के अलावा माले के राज्य सचिव कुणाल, विधायक दल के नेता महबूब आलम, धीरेन्द्र झा, प्रो. अभय कुमार, सतीश पटेल, केडी यादव, संतोष सहर, कमलेश शर्मा, शशि यादव, सतीश पटेल, अशोक कुमार और बड़ी संख्या में शहर के बुद्धिजीवी उपस्थित थे। कार्यक्रम का संचालन डॉ. कुमार परवेज ने किया।

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