लालमोहन महाराज, मुंगेर
बिहार योग विद्यालय के संस्थापक स्वामी सत्यानंद सरस्वती की जन्म शताब्दी के मौके पर पादुका दर्शन आश्रम में सोमवार को स्वामी निरंजनानंद सरस्वती ने कहा कि स्वामी सत्यानंद को योग प्रचारक एवं योग गुरु के नाम से जाना जाता है, लेकिन वह एक संन्यासी थे और उनका व्यक्तित्व बहुआयामी था। स्वामी सत्यानंद भ्रमण करते हुए कई आचार्यों से शिक्षा प्राप्त की। प्रथमतः वे वेदांत के प्रभाव में आये और अद्वैत मत में दीक्षित हुए, जहाँ इनका नाम शुद्ध चैतन्य पड़ा। इसके पश्चात् वे स्वामी परमानंद से संन्यासियों की चतुर्थ श्रेणी में दीक्षित हुए और यहीं इनकी प्रचलित उपाधि ‘दयानंद सरस्वती’ हो गई । स्वामी जी ने 12 साल गुरुसेवा व 8 साल परिवाज्रक के रूप में जो ज्ञान व अनुभव पाया था उसे भावी योग के विद्यार्थियाें को देने के लिए 300 से ज्यादा किताबें लिखीं। इसमें योग के सिद्धांत कम और प्रयोग ज्यादा हैं। इनकी किताबें स्कूलों में योग की बाइबिल के तौर पर देखी जाती हैं। सत्यानंद को बीस साल मिले और इस अवधि में दुनिया को सत्यानंद के जरिये योग मिला। इन्हीं बीस सालों में मुंगेर में बिहार योग विद्यालय की स्थापना हुई, जहां से निकल कर सत्यानंद पूरी दुनिया में जाते थे और पूरी दुनिया से लोग निकल कर बिहार योग विद्यालय पहुंचते थे. एक से एक प्रामाणिक, वैज्ञानिक योग ग्रंथों का प्रकाशन हुआ।स्वामी निरंजनानंद सरस्वती ने कहा कि स्वामी सत्यानंद उत्तराखंड के अल्मोड़ा के रहने वाले थे।
बचपन से ही उन्हें धर्म और अध्यात्म में दिलचस्पी थी। 19 वर्ष के आयु में उन्हें अपने गुरु शिवानंद के दर्शन हुए। स्वामीजी ने स्वामी सत्यानंद के जीवन से जुड़ी कई अन्य महत्वपूर्ण जानकारियां दी । बताते चलें कि गंगा की गोद व हिमालय की छाया में बसे उत्तराखंड ने योग व अध्यात्म के क्षेत्र में सर्वश्रेष्ठ सितारों को दुनिया को दिया है। उनकी चमक से आज भी संपूर्ण जगत लाभांवित हो रहा है। ऐसी ही योग की हस्ती थे स्वामी सत्यानंद सरस्वती, जिन्होंने विश्व के पहले योग स्कूल (बिहार स्कूल ऑफ योगा) को स्थापित किया। साथ ही करीब 300 किताबें लिखीं। जिससे योग के विद्यार्थी सदैव के लिए मार्गदर्शन पा रहे हैं। बिहार स्कूल आफ योगा की शाखाएं आज दुनिया के 70 देशों में संचालित हो रहीं हैं।स्वामी सत्यानंद सरस्वती का जन्म उत्तराखंड के अल्मोड़ा जिले के नयाल परिवार में 24 दिसंबर 1923 को हुआ था। इनके गांव व परिवार के बारे में बहुत जानकारी नहीं है। इसका कारण इनके कम उम्र में परिवार छोड़ने व संन्यास के बाद इस बारे में बात न करना है।
इन्हें महज छह साल की उम्र में ही पहली बार अल्मोड़ा में हिमालय की तराई में आध्यात्मिक अनुभूति हुई। हिमालयी ऋषि सत्ताओं के संपर्क में होने व उच्च हिमालय की यात्रा से इनके अंदर दैवीय शक्ति आने लगी। इस दौरान इनके अंदर वैराग्य की भावना बलवती हो उठी।